समाज की रीढ़

एक बीघा ज़मीन,उसपे टूटी झोपड़ी,झोपड़ी से उठता हुआ धुंआ,धुंए में भुनी हुई लाशें।जब लोक तंत्र से लोग खोने लगते हैं,तो ऐसे ही घरों के अंदर जला दिए जाते हैं। एक मजबूत लाठी,लाठी से फूटा हुआ सिर,खून से सनी हुई बुशर्ट,एक दबी हुई चीख।जब जन सेवक, साहब होने लगते हैंतो भीड़ पे यूहीं डंडे चला दिएContinue reading “समाज की रीढ़”

भेड़ियों की मंडी

इस शहर में अब चरागों की कोई कीमत नहीं,रौशनी के वास्ते हम देश ही जला रहे हैं। हिंद की किस्मत में अब हल्ला है, अंधा शोर है,नाचता है मुल्क और नेता हमारे गा रहे हैं। तुम को अपनी जात में ही अब मिलेगा हौसला,हम भी अपनी जात की ही रोटियां चबा रहे हैं। जब भीContinue reading “भेड़ियों की मंडी”

The stalled humanity.

Where will it lead us? The magnanimous amount of animosity which we have incubated in our veins, is all set to tear our flesh apart and emerge out as the victor of our conscience, our moral existence. Why is it so difficult for us to believe that every human on this planet is initially aContinue reading “The stalled humanity.”

जीवन का दोराहा

नन्हे नन्हे पैरों को, हाथ पकड़ चलवाया था, फ़ाके में जी लेते थे, तुझको सबकुछ दिलवाया था। अब तू कहता है, “मां बाबा, आंख मूंद के सो जाओ, मेरा भी कोई जीवन है, अपने में जाओ, खो जाओ। ये दुनिया मेरी अपनी है, इसको , मैंने जोड़ा है। तुम लोग समझ ना पाओगे, इसलिए तुम्हेंContinue reading “जीवन का दोराहा”

नई सदी का निज़ाम

नई सदी के हिंदुस्तान ने, अद्भुत ज्ञान लिया है। प्यार मोहब्बत झूठ हैं सारे, उसने जान लिया है। उसने अब ये ठाना है, कि इंसानी नाते जो हैं, उनकी एक हद होगी। अपनी जात में सीमित होगी, मज़हब में बेहद होगी। गलियों को इजाज़त लेनी होगी, सड़कों में खुलने को। हर कदम पे नाके होंगे,Continue reading “नई सदी का निज़ाम”

CAA through the eyes of law

This article is a legal interpretation and it should be read with no political , ideological or regional biass. At the outset I must declare that I am against any form of violent protest going on across the country and especially those in the North Eastern States. This is a small article in the formContinue reading “CAA through the eyes of law”

तुम्हारा डर

तुम्हारी अनकही सच्चाइयों को नापता हूँ, तुम्हारी अनछुई परछाइयों को भांपता हूँ। यूँ तो चाहता तुमको कभी स्पष्ट कर दूँ, मगर डर है, कहीं बनते हुए को नष्ट कर दूँ। ये डर इतना भयंकर है, कि चंचल लब सिये हैं। मेरे मन के जो अंदर है, उसे लेकर जिए हैं। इसी डर का बवंडर है,Continue reading “तुम्हारा डर”