अम्मा

जब भी अकेली रात में, परछाइयां सताती हैं। बचपन के निश्छल पन्नों से, तब अम्मा वापिस आती हैं। जीवन की डगर पर, घबराकर , मन विचलित होकार, पगलाकर। जब सपनों को खो देता है, चलता चलता रो देता है। जब आशाओं की कोई धारा, आस – पास ना होती है। इक्षाओं की घनघोर घटा, जबContinue reading “अम्मा”