थम गए, कदम अगर,
जो रुक सी जाती है डगर।
जो रात काली बढ़ रही,
आसमाँ पे चढ़ रही।
जो रेत करवटें लिए,
खेत को निगल रही।
जो भास्कर का ताप अब,
आसमाँ का श्राप हो।
जो चारों और अब तेरे,
विलाप ही विलाप हो।
न भोर की जो आस हो,
विफल जो हर प्रयास हो।
जो पैर तेरे जड़ गए,
स्वार्थ में जो गड गए।
हवाएँ गर रुला रहीं,
रश्मियाँ सुला रहीं।
तो देख उठ के तू ज़रा,
कि क्यों है ऐसा माजरा।
कि दम तेरा निकल चुका,
पाषाण मन पिघल चुका ।
फिर क्यों भोर दूर है,
क्यों रात को गुरूर है।
तू पायेगा कि वक़्त एक,
रेंगती सी धार है।
है रेत उड़ रही इधर,
उधर मगर बहार है।
इधर उधर के बीच में।
मनुज का नाच हो रहा।
जो जग रहा वो तप रहा,
जो सो रहा वो खो रहा।
जो ज्ञान के प्रवाह को,
पकड़ चुका वो तर गया।
जो क्रोध द्वेष बैर में,
जकड़ चुका वो मर गया।
तो पाश तोड़ द्वेष का,
न वक़्त पे तू क्रोध कर।
जो जल रहा शरीर ये।
जला के आत्मबोध कर।
फिर अश्रुओं को पोंछ कर,
स्वेद को निचोड़ दे।
जगा के धुन बढ़न्त की,
नाव अपनी मोड़ दे।
नए प्रवाह से पुनः,
सफ़र पे तू जो बढ़ गया।
तो पायेगा कि डूबता ,
तपस वो फिर से चढ़ गया।
सच में बहुत बहुत बेहतरीन रचना है ।
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Bhaut acha likey ho bhai……
Feel proud of you…
Keep writing like this
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Nice one
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It’s amazing sir..
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